Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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जब तक प्रेमशंकर औषधालय में रहे, इर्फानअली प्रायः नित्य उनका समाचार पूछने जाया करते थे। उनके धैर्य और साहस पर डॉक्टर साहब को आश्चर्य होता था। प्रेमशंकर के प्रति उनकी श्रद्धा दिनोंदिन बढ़ती जाती थी। अपने मुवक्किलों के साथ उनका व्यवहार अब अधिक विनयपूर्ण होता था। वह उनके मुआमले ध्यान से देखते, एक समय एक से अधिक मुकदमा न लेते और एक मुकदमे को इजलास पर छोड़कर दूसरे मुकदमे की पैरवी करने की तो उन्होंने मानो शपथ ही खा ली। वह अपील करने के लिए बार-बार प्रेमशंकर को प्रेरित करना चाहते थे पर अपनी असज्जनता को याद करके सकुच जाते थे। अन्त में उन्होंने सीतापुर जा कर बाबू ज्वालासिंह से इस विषय में परामर्श करने का निश्चय किया; किन्तु वह महाशय अभी तक दुविधा में पड़े हुए थे। वह प्रेमशंकर को लिख चुके थे कि त्याग-पत्र दे कर शीघ्र ही आपकी सेवा में आता हूँ। लेकिन फिर कोई न कोई ऐसी बात आ जाती थी कि उन्हें अपने इरादे को स्थगित करने पर विवश होना पड़ता था। बात यह थी कि शीलमणि उनके इस्तीफा देने पर राजी न होती थी। वह कहती– बला से तुम्हारे अफसर तुमसे अप्रसन्न हैं, तरक्की नहीं होती है, न सही। तुम्हारे हाथों से न्याय करने का अधिकार तो है। अगर तुम्हारे विधातागण तुम्हारे व्यवहार से असन्तुष्ट होकर तुम्हें पदच्युत कर दें, तो तुम्हें अपील करनी चाहिए और चोटी के हाकिमों से लड़ना चाहिए। यह नहीं कि अफसरों ने जरा तीवर बदला और तुमने भयभीत हो कर त्याग-पत्र देने की ठान ली। तुम्हारी इस अकर्मण्यता से तुम्हारे कितने ही न्यायशील और आत्माभिमानी सहवर्गियों की हिम्मत टूट जायेगी और वह भाग निकलने का उपाय करने लगेंगे। यह विभाग सज्जनों से खाली हो जायेगा और वही खुशामदी टट्टू, हाकिमों के इशारे पर नाचनेवाले बाकी रह जायेंगे। ज्वालासिंह इस दलील का कोई जवाब न दे सकते थे। जब डॉक्टर इर्फान अली सिर पर जा पहुँचे तो वह अपनी शिथिलता और अधिकार-प्रेम का दोष शीलमणि पर रख कर अपने को मुक्त न कर सके।

शीलमणि समझ गई कि अब उन्हें रोकना कठिन है, मेरी एक न सुनेंगे। ज्यों ही अवसर मिला उसने ज्वालासिंह से पूछा– डॉक्टर साहब को क्या जवाब दिया?

ज्वालासिंह– जवाब क्या देना है, इस्तीफा दिये देता हूँ। अब हीला-हवाला करने से काम न चलेगा। जब तक मैं न जाऊँगा; बाबू प्रेमशंकर कुछ न कर सकेंगे। दुर्भाग्य से वह मुझ पर उससे कहीं ज्यादा विश्वास करते हैं, जिसके योग्य मैं हूँ। अपील की अवधि बीत जायेगी तो फिर बनाए न बनेगी। अपील के सफल होने की बहुत कुछ आशा है और यदि मेरे सदुद्योग से कई निरपराधों की जानें बच जायें, तो मुझे अब एक क्षण भी विलम्ब न करना चाहिए।

शीलमणि– तो अधिक दिनों की छुट्टी क्यों नहीं ले लेते?

ज्वालासिंह– तुम तो जान बूझकर अनजान बनती हो। वहाँ मुझे कितनी ही ऐसी बातें करनी पड़ेंगी जो दासत्व की बेड़ियाँ पहने हुए नहीं कह सकता। रुपये के लिए चन्दे माँगना, वकीलों से मिलना-जुलना, लखनपुरवालों के कष्ट-निवारण की आयोजना करना, यह सभी काम करने पड़ेंगे। पुलिसवालों की निगाह पर चढ़ जायेंगे, तो इस बेड़ी को काट ही क्यों न दूँ? मुझे पूरा विश्वास है कि मैं स्वाधीन हो कर जितनी जाति-सेवा कर सकता हूँ, उतनी इस दशा में कभी न कर सकूँगा
शीलमणि बहुत देर तक उनसे तर्क-वितर्क करती रही, अन्त में क्रुद्ध हो कर बोली– उँह, जो इच्छा हो करो। मुझे क्या करना है? जैसा सूखा सावन वैसा भरा भादों। आप ही पछताओगे। यह सब आदर-सम्मान तभी तक है, जब तक हाकिम हो। जब जाति सेवकों में जा मिलोगे तो कोई बात भी न पूछेगा। क्या वहाँ सबके सब सज्जन ही भरे हुए हैं? अच्छे-बुरे सभी जगह होते हैं। प्रेमशंकर की तो मैं नहीं कहती, वह देवता है, लेकिन जाति सेवकों से तुम्हें सैकड़ों आदमी ऐसे मिलेंगे जो स्वार्थ के पुतले हैं, और सेवा भेष बनाकर गुलछर्रे उड़ाते हैं। वह निस्पृह, पवित्र आत्माओं को फूटी आँख नहीं देख सकते। तुम्हें उनके बीच में रहना दूभर हो जायेगा। उनका अन्याय, कपट-व्यवहार और संकीर्णता देखकर तुम कुढ़ोगे, पर उनसे कुछ न कह सकोगे। इसलिए जो कुछ करो, सोच-समझ कर करो।

ये वही बातें थी जो ज्वालासिंह ने स्वयं शीलमणि से कहीं थीं। कदाचित् यहीं बातें सुन-सुन कर वह इस्तीफे के विपक्ष में हो गई थी। पर इस समय वह यह निराशाजनक बातें न सुन सके, उठ कर बाहर चले आए और उसी आवेश में आकर-त्याग पत्र लिखना शुरू किया।  

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